History Of Tea - चाय का इतिहास
History Of Tea: चाय जिसके लिए ब्रिटिश सरकार को चोरी तक करना पड़ा। चाय का इतिहास जो आप नहीं जानते!
चाय जिसे हम सभी सुबह से लेकर शाम तक पीते रहते हैं तथा किसी भी मेहमान के आने पर भी घर में और कुछ हो ना हो लेकिन चाय तो जरूर ही पिलाते हैं।
एक रिसर्च में पाया गया कि दुनियां में अधिकतर लोग अपने दिन की शुरुआत चाय के गर्म प्याले से ही करते हैं। दुनिया में पानी के बाद सबसे ज्यादा पिया जाने वाला पदार्थ चाय है।
लेकिन क्या आप जानते हैं कि जो चाय हम सभी का चहेता है, उसका इतिहास उतना ही रहस्यमई और विवादास्पद भी है।
जी हां मित्रों आज बेशक चाय हर घर और हर कोई आसानी से पी रहा है, लेकिन चाय का इतिहास बहुत ही दिलचस्प है। जिसे हम आगे एक-एक कर जानेंगे।
नमस्कार दोस्तों गहन अध्ययन कर के आपके लिए एक अजीब और अच्छी जानकारी लेकर आया हूं, तो चलिए आज जानते हैं चाय से जुड़ी कुछ खास बातें।
चीन में चाय का जन्म।
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बात ईसा से 2737 साल पहले की है। चीन के एक राजा शेन नूंग थे। एक दिन सफाई व्यवस्था में लगे अपने आदमियों की सुरक्षा को ध्यान में रखकर पानी उबाल कर पीने की सलाह दी।
एक दिन राजा के पीने के लिए पानी गर्म हो रहा था कि हवा से उड़कर कुछ पत्तियां उस उबलते हुए पानी में आ गिरी और उबलने लगीं।
पानी में पत्तियों के उबलने से पानी का रंग बदल गया और उसमें से एक अजीब खुशबू आने लगी। राजा शेन नुंग ने जब उस पानी को पिया तो उन्हें अजीब ताज़गी का एहसास हुआ।
शेन नूंग रोज़ इसका सेवन करने लगे। फिर क्या था हो गई चाय पीने की शुरुआत। जी हां सन 350 में पहला चाय पीने का उल्लेख मिलता है।
एक अन्य तथ्य के अनुसार छठी शताब्दी में चीन के हुनान प्रांत में भारतीय बौद्ध भिक्षु बिना सोए ध्यान साधना किया करते थे।
वे बौद्ध भिक्षु जगे रहने के लिए कुछ पौधों की पत्तियों को चबाते थे। बाद में वही पौधा चाय के रूप में जाना गया।
मित्रों इस तरह चाय हमारे बीच में उपस्थित हुआ। लेकिन रुकिए ये तो सिर्फ़ चाय के जन्म की बात है और भी बड़ी और विवादास्पद कहानी तो अभी आगे जानेंगे।
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चाय का एकमात्र चीन में ही उपयोग होता था। इसलिए यह एकमात्र चीन की ही धरोहर या संपत्ति थी। परंतु 16वीं शताब्दी में चाय दुनिया भर में प्रसिद्ध हो गया।
दरअसल 1618 में चाय की पत्तियां ब्रिटिश शासक के लिए चीन से तोहफ़े में मिला। 1600 की सदी में चाय डेनमार्क, रसिया, पुर्तगाल और यूरोप में आयात होने लगीं।
1658 में पहली बार ब्रिटिश अखबार में इसका विज्ञापन जारी हुआ। इस दौरान इसका नाम "Tea" पड़ा। अबतक चीन और पुर्तगाली व्यापारी ब्रिटिश के बाजारों में चाय को पहुंचा चुके थे।
मगर इसका बड़ा प्रचलन 1662 में तब बढ़ा जब पुर्तगाल की राजकुमारी कैथरीन ऑफ ब्रिगेंजा की शादी इंग्लैंड के राजा किंग चार्ल्स द्वितीय से हुई।
क्योंकि वह दहेज़ में चाय की पत्तियां लेकर आई थीं। उन्हें चाय से बहुत लगाव था। इस प्रकार रॉयल परिवार चाय से मिला। रानी अपने सभी मित्रों को चाय पिलाती थी।
इस बात को फैलते देर नहीं लगी कि रॉयल परिवार के पास एक स्पेशल ड्रिंक है जो सिर्फ और सिर्फ रानी के पास रहता है। इस प्रकार ब्रिटेन में चाय की आयात शुरू हुई।
चाय धीरे धीरे सबकी जरुरत होती चली गई। इधर ब्रिटिश सरकार का वर्चस्व बढ़ा और 1833 में ट्रेड कंपटिसन शुरू हुआ और चाय ग्लोबलाइजेशन होने के कारण मांग बढ़ने लगी।
उस समय भारत से ब्रिटिश सरकार कपास और अफ़ीम के बदले चीन से चाय मंगाती थी। परन्तु चीन का उस समय चांदी में बहुत लगाव था। चीन का ये धंधा 1839 तक चला।
चाय पर चीन का अधिकार था इसलिए ब्रिटिश सरकार को चीन पर ही निर्भर रहना पड़ता। लेकिन अब ब्रिटिश सरकार चाय को अपना बनाने के लिए प्रयास करने लगी।
इस मुहिम के अनुसार ब्रिटेन ने चीन के खिलाफ़ युद्ध भी छेड़ दिया। इसके फलस्वरूप चीन चाय की पत्तियां सप्लाई करना ही बंद कर दिया तो परेशानी और बढ़ी।
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अबतक ब्रिटेन को ये समझ आ गया था कि चाय युद्ध से नहीं मिलेगा। क्योंकि इनको तो चाय तैयार करने के तरीक़े चाहिए थे न की चाय।
क्योंकि चाय की खेती कैसे होती है ये सिर्फ चीन को ही पता था, किसी और को नहीं। इसलिए ब्रिटिश सरकार के लिए ये बहुत बड़ी कमजोरी थी।
बात 1848 की है चीन के शंघाई शहर से कुछ दूर पर रॉबर्ट फॉर्च्यून ईस्ट इंडिया कम्पनी का जासूस था। जो चीन के अंदर चाय पत्ती चुराने के काम पर भेजा गया था।
लेकिन इसके लिए उन्हें सबसे पहले वेष भूषा बदलना था। चीनी सभ्यता के अनुसार रॉबर्ट फॉर्च्यून के सिर मुंडवाया गया और उसके सिर पर एक चोटी लगाई गई और चीनी कपड़े पहनाए गए।
साथ ही उसे एक और बात कही गई थी कि वह इस मामले में अपना मुंह बन्द रखे। क्योंकि ब्रिटिश सरकार ये चाहती थी कि किसी भी तरह चाय की हर जानकारी प्राप्त कर भारत में उसका उत्पादन किया जा सके।
क्योंकि ब्रिटिश सरकार का भारत पर शासन होने के कारण आसानी से सब काम हो जाता और लागत भी नहीं लगती ज्यादा।
परन्तु जरुरी नहीं कि कोई भी कठिन कार्य आसानी से हो। अब समस्या ये थी कि रॉबर्ट फॉर्च्यून चीनी लोगों के लंबाई से काफ़ी ऊंचे निकले।
उसका हल कुछ ऐसा निकाला गया कि चीनियों से ये कह दिया जाएगा कि वह दीवार के उस तरफ से आया है अर्थात् रॉबर्ट फॉर्च्यून दीवार के उस तरफ़ का निवासी है जहां के लोग लंबे होते हैं।
इस कार्य में रॉबर्ट फॉर्च्यून का सब कुछ दांव पर लगा था। अगर पकड़ा जाता तो मारा जाता अगर कामयाब होता तो चीन का चाय से आधिपत्य खत्म हो जाता।
कैसे चाय चोरी करने के लिए ब्रिटेन ने रॉबर्ट फॉर्च्यून को चीन भेजा - कैसे मिला चाय बनाने का तरीका?
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रॉबर्ट फॉर्च्यून ने चीनियों का वेष भूषा धारण कर एक नकली नाम के साथ जो "सींग हुवा" था चीन में गया। ब्रिटिश सरकार ने उससे कहा तुम बेहतरीन चाय के पौधे और बीज के अलावा ऐसे पौधों की खेती और उगाने की तकनीक हासिल करके आओ, जो हिंदुस्तान में पैदा किया जा सके।
रॉबर्ट फॉर्च्यून का काम आसान नहीं था वह ये समझ चुका था कि, मुझे सिर्फ़ तरीका नहीं जानना है, बल्कि बड़े पैमाने पर चाय के पौधे और बीज साथ ही साथ कुछ चीनियों को भी लाना पड़ेगा जो शुरुआती खेती में मदद करें।
रॉबर्ट फॉर्च्यून कई नावों, घोड़ों, पालकियों और कठिन रास्तों को पार करते हुए तीन महीने बाद चीन के अंदर घाटी के एक चाय के कारखाने के अंदर प्रवेश किया।
क्योंकि उसे चाय के पौधों, उगने के तरीक़े और मौसम एवं पत्ती की पैदावार तथा सुखाने के तरीक़े आदि के बारे में जानकारी प्राप्त करनी थी।
लेकिन ये क्या रॉबर्ट फॉर्च्यून ने देखा कि कारखाने में एक ही पौधे से काली चाय और ग्रीन चाय दोनों बन रहा है। अबतक यूरोपीयन लोग ये जानते थे कि ग्रीन टी अलग और ब्लैक टी अलग पेड़ से बनता है।
अब क्या था रॉबर्ट फार्च्यून की मेहनत रंग लाई और वह शासक से आंख बचाकर बीज, पौधे और कुछ चीनी मजदूरों को भारत भेजने में कामयाब हुआ।
अब ईस्ट इंडिया कम्पनी ने उन मजदूरों की निगरानी में असम में चाय उगाना शुरू किया। लेकिन उनसे एक गलती हो गई जो पौधे वहां से लाए थे वे वहां पहाड़ के ठंड के आदी थे इसलिए धीरे धीरे सूखने लगे। जिससे ईस्ट इंडिया कम्पनी की सारी कोशिशें बेकार हो गई।
आसाम के जंगलों में चाय का मिलना - आसाम से भारत में चाय बनाने की शुरुआत हुई।
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लेकिन एक दिन एक संयोग हुआ इसे ब्रिटिश की खुशकिस्मती कहें या चीन की बदकिस्मती उसी दौरान असम में एक पौधे मिले जो चाय से मिलता जुलता था।
जिसे स्कॉटिश के रॉबर्ट ब्रास नामक व्यक्ति ने 1823 में खोजा था। जो असम के जंगलो में अपने आप उगता था। हालांकि कई विशेषज्ञ के अनुसार ये चाय से कम अच्छा था।
चीन के पौधों की नाकामयाबी के बाद ब्रिटिश सरकार ने अपना पूरा ध्यान असम में उगने वाले इन पौधों पर लगा दिया। फार्च्यून ने जब इसपर रिसर्च किया तो पाया ये चीनी पौधों की ही एक नस्ल है।
अब क्या था जब चीनी तरीकों से इन्हें उगाया गया तो चीनी मेहनत कामयाब रही और चीन पर चाय का एकाधिकार खत्म हो गया और लोगों ने भी खूब पसंद किया।
चीन की चाय की निर्यात उचित मात्रा में ना होने से उनका भारी मात्रा में नुकसान हुआ। जिससे उनके चाय की पत्तियां खराब होने लगीं। अंततः चीन समझ चुका था की अब उसके चाय की कीमत और मांग उतनी नहीं जीतना वो सोचता था।
अब जब ब्रिटिश सरकार ने चाय बना लिया था तो उसने सबसे पहले चीनी और फिर कुछ दिनों बाद दूध भी मिलाकर पीना शुरू कर दिया। जिससे चाय में दूध और चीनी मिलाकर पीना शुरू हुआ।
चाय में दूध और चीनी मिलाकर पीने की शुरुआत हुई।
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परन्तु सच तो यह है कि चीनी आज भी चाय में कुछ और मिलाकर पीना पसंद नहीं करते हैं। वे सिर्फ चाय को पानी में उबालकर पीते हैं। मगर भारत में ऐसा नहीं था भारत ने लगभग अंग्रेजो की बहुत सारी आदतें अपना ली।
कहा जाता है अंग्रेजो ने हमारे भारतीयों को चाय फ्री में पिलाना शुरू किया। जिससे उनको आदत पड़ जाए और चाय का एक बड़ा व्यापारिक हिस्सा भारत खुद बन जाए।
चाय से जुड़ी एक और बात सन 1773 में सामने आती है जब ब्रिटेन अमेरिका में चाय का व्यापार करता था परन्तु टैक्स नहीं देता था। इससे परेशान होकर एक दिन कुछ अमेरिकियों ने बोस्टन बंदरगाह पर ब्रिटेन के जहाज पर लादे हुए चाय की पेटियों को समुद्र में फेंक दिया।
इस घटना का ब्रिटेन ने अमेरिकियों का अच्छा बदला लिया। जिससे संपूर्ण अमेरिका के लोगों में क्रांति जागृत हुई और आखिरकार 3 साल बाद अमेरिका आज़ाद हो गया।
इसी घटना का ज़िक्र भारत के प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने 1985 में अमेरिका के कांग्रेस को संबोधित करते हुए कहा कि "भारत में पैदा हुए चाय ने अमेरिका को ब्रिटेन से आज़ाद होने की हवा दी।" उनका इशारा 1773 की तरफ था।
तो दोस्तों कैसी लगी चाय के ऊपर ये सच्ची कहानी कॉमेंट कर ज़रूर बताएं यदि आप किसी अन्य तथ्य के बारे में जानकारी प्राप्त करना चाहते हैं या कोई सुझाव देना चाहते हैं तो भी लिखें। जल्द से जल्द हम प्रयास करेंगे धन्यवाद।
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जय लक्ष्मीनारायण जी